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कभी हम में तुम में भी प्यार था तुम्हें याद हो कि न याद हो | शाही शायरी
kabhi hum mein tum mein bhi pyar tha tumhein yaad ho ki na yaad ho

ग़ज़ल

कभी हम में तुम में भी प्यार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

अर्श मलसियानी

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कभी हम में तुम में भी प्यार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
न किसी के दिल में ग़ुबार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

ये चली है कैसी हवा कि अब नहीं खिलते फूल मिलाप के
कभी दौर-ए-फ़स्ल-ए-बहार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

थीं बहम नशात की महफ़िलें थीं क़दम में लुत्फ़ की मंज़िलें
बड़ा ज़िंदगी पे निखार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

थी हर एक बात में चाशनी हक़-ओ-सिद्क़-ओ-लुत्फ़-ओ-ख़ुलूस की
रह-ए-हक़ पे चलना शिआ'र था तुम्हें याद हो कि न याद हो

हुए लड़ के हम से अगर जुदा रखी और मुल्क की इक बना
ये तुम्हीं का शौक़-ए-फ़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

हुई जंग-ओ-हर्ब की इब्तिदा तो बताओ बस यही इक पता
कोई तुम में नंग-ए-वक़ार था तुम्हें याद हो कि न याद हो