कभी अपनों की यूरिश थी कभी ग़ैरों का रेला था
तिरे मिलने की ख़ातिर हम ने क्या क्या दुख न झेला था
मिरे अहबाब क्या बे-वक़्त मेरे पास आ बैठे
घटा घनघोर थी वो अपने कमरे में अकेला था
हमारा शाम-ए-तन्हाई में पुरसाँ ही न था कोई
वो जिस महफ़िल में जाते थे वहीं यारों का मेला था
मोहब्बत की जुनूँ-अंगेज़ियों से हम भी वाक़िफ़ हैं
जवानी में जवानो हम ने भी ये खेल खेला था
उधर वो थे कि थी इक दौलत-ए-बेदार पास उन के
इधर हम थे कि अपनी जेब में पैसा न ढेला था
हुई मुद्दत कि उन को ख़्वाब में भी अब नहीं देखा
मैं जिन गलियों में अपने दोस्तों के साथ खेला था
जवानी में हमारी तुंद-ख़ूई एक आफ़त थी
हमारे दम से हर महफ़िल में झगड़ा था झमेला था
'हमीद' उस चाह-ए-ग़म से आज तक बाहर नहीं आया
अज़ीज़ों ने उसे मुद्दत हुई जिस में ढकेला था
ग़ज़ल
कभी अपनों की यूरिश थी कभी ग़ैरों का रेला था
हमीद जालंधरी