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कभी अंगड़ाई ले कर जब समुंदर जाग उठता है | शाही शायरी
kabhi angDai le kar jab samundar jag uThta hai

ग़ज़ल

कभी अंगड़ाई ले कर जब समुंदर जाग उठता है

अरशद कमाल

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कभी अंगड़ाई ले कर जब समुंदर जाग उठता है
मिरे अंदर पुराना इक शनावर जाग उठता है

नशेमन-गीर हैं ताइर भला समझें तो क्या समझें
वो कैफ़ियत कि जब शाहीं का शहपर जाग उठता है

मैं जब भी खींचता हूँ एक नक़्शा रोज़-ए-रौशन का
न जाने कैसे इस में शब का मंज़र जाग उठता है

ज़माना गामज़न है फिर उन्ही हालात की जानिब
बिफर कर जब अबाबीलों का लश्कर जाग उठता है

मिरे एहसास की रग से उलझ पड़ता है जो लम्हा
उसी लम्हे तड़प कर इक सुख़न-वर जाग उठता है

वो तारे जो चमक रखते नहीं कुछ रोज़-ए-रौशन में
शब-ए-तारीक में उन का मुक़द्दर जाग उठता है

ये माना सैल-ए-अश्क-ए-ग़म नहीं कुछ कम मगर 'अरशद'
ज़रा उतरा नहीं दरिया कि बंजर जाग उठता है