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कब तक उस का हिज्र मनाता सहरा छोड़ दिया | शाही शायरी
kab tak us ka hijr manata sahra chhoD diya

ग़ज़ल

कब तक उस का हिज्र मनाता सहरा छोड़ दिया

उबैद सिद्दीक़ी

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कब तक उस का हिज्र मनाता सहरा छोड़ दिया
जीने की उम्मीद में मैं ने क्या क्या छोड़ दिया

मेरे साथ लगा रहता है यादों का बादल
धूप-भरे रस्तों पर उस ने साया छोड़ दिया

हर चेहरे पर इक चेहरे का धोका होता है
किस ने मुझ को इस बस्ती में तन्हा छोड़ दिया

दुनिया सब कुछ जान गई है मेरे बारे में
बिंत-ए-अलम ने ना-महरम से पर्दा छोड़ दिया

पहले पहले ख़ौफ़ बहुत आता था मरने से
फिर वो मंज़िल आई मैं ने डरना छोड़ दिया