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कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं | शाही शायरी
kab tak phirunga hath mein kasa uTha ke main

ग़ज़ल

कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं

दिलावर अली आज़र

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कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं
जी चाहता है भाग लूँ दुनिया उठा के मैं

होती है नींद में कहीं तश्कील-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल
उठता हूँ अपने ख़्वाब का चेहरा उठा के मैं

बा'द अज़ सदा-ए-कुन हुई तक़्सीम-ए-हस्त-ओ-बूद
फिरता था काएनात अकेला उठा के मैं

क्यूँकर न सहल हो मुझे राह-ए-दयार-ए-इश्क़
लाया हूँ दश्त-ए-नज्द का नक़्शा उठा के मैं

बढ़ने लगा था नश्शा-ए-तख़्लीक़-ए-आब ओ ख़ाक
वो चाक उठा के चल दिया कूज़ा उठा के मैं

है साअत-ए-विसाल के मलने पे मुनहसिर
कस सम्त भागता हूँ ये लम्हा उठा के मैं

क़ुर्बत-पसंद दिल की तबीअत में था तज़ाद
ख़ुश हो रहा हूँ हिज्र का सदमा उठा मैं

अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं

अच्छा भला तो था तन-ए-तन्हा जहान में
पछता रहा हूँ ख़ल्क़ का बेड़ा उठा के मैं

'आज़र' मुझे मदीने से हिजरत का हुक्म था
सहरा में ले के आ गया ख़ेमा उठा के मैं