कब क़ाबिल-ए-तक़लीद है किरदार हमारा
हर लम्हा गुज़रता है ख़तावार हमारा
मरना भी जो चाहें तो वो मरने नहीं देगा
जीना भी किए रहता है दुश्वार हमारा
अच्छा है उधर कुछ नज़र आता नहीं हम को
जो कुछ भी है वो सब पस-ए-दीवार हमारा
इक रोज़ तो ये फ़ासला तय कर के रहेंगे
है कब से कोई मुंतज़िर उस पार हमारा
हम को ये ख़ुशी है कि इधर आए तो पत्थर
है शहर में कोई तो तलबगार हमारा
कोई तो ये तन्हाई का एहसास मिटाए
कोई तो नज़र आए तरफ़-दार हमारा
हम ने तो 'हयात' आस लगाई है ख़ुदा से
है उस के सिवा कौन मदद-गार हमारा
ग़ज़ल
कब क़ाबिल-ए-तक़लीद है किरदार हमारा
हयात लखनवी