कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके
वो ख़त भी मगर मैं ने जला कर नहीं फेंके
ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था
कुछ सोच के ख़ुद मैं ने ही पत्थर नहीं फेंके
इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यूँ
मैं ने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके
वैसे तो इरादा नहीं तौबा-शिकनी का
लेकिन अभी टूटे हुए साग़र नहीं फेंके
क्या बात है उस ने मिरी तस्वीर के टुकड़े
घर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंके
दरवाज़ों के शीशे न बदलवाइए 'नज़मी'
लोगों ने अभी हाथ से पत्थर नहीं फेंके
ग़ज़ल
कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके
अख़्तर नज़्मी