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कब इक मक़ाम पे रुकती है सर-फिरी है हवा | शाही शायरी
kab ek maqam pe rukti hai sar-phiri hai hawa

ग़ज़ल

कब इक मक़ाम पे रुकती है सर-फिरी है हवा

बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन

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कब इक मक़ाम पे रुकती है सर-फिरी है हवा
तमाम शहर ओ बयाबाँ को छानती है हवा

नसीब-ए-पा-ए-जुनूँ है सदा की दर-बदरी
हवा-ए-जादा-ओ-मंज़िल में कब चली है हवा

ये पेच-ओ-ताब है कैसा सबब नहीं खुलता
बना बना के बगोले बिगाड़ती है हवा

सिवाए ख़ाक न कुछ हाथ आज तक आया
सराब रेत से सहरा में छानती है हवा

ग़ज़ब का ग़ैज़ ओ ग़ज़ब था जो हम न बिखरे थे
बिखर गए हैं तो कैसी डरी खड़ी है हवा

उखाड़ तोड़ के बस्ती के सब मकानों को
छिपी खंडर में पशीमान रो रही है हवा

वो एक बात जो ख़ुद से भी हम न कहते थे
ज़बाँ ज़बाँ पे वही बात धर गई है हवा

तमाम लाला ओ गुल के चराग़ रौशन हैं
शजर शजर पे शगूफ़ों में जल रही है हवा

कब अपना हाथ पहुँचता गुलाब तक 'बिल्क़ीस'
मिरे नसीब से शाख़ों में जा फँसी है हवा