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काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से | शाही शायरी
kaTi hai gham ki raat baDe ehtiram se

ग़ज़ल

काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से

अली अहमद जलीली

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काटी है ग़म की रात बड़े एहतिराम से
अक्सर बुझा दिया है चराग़ों को शाम से

रौशन है अपनी बज़्म और इस एहतिमाम से
कुछ दिल भी जल रहा है चराग़ों के नाम से

मुद्दत हुई है ख़ून-ए-तमन्ना किए मगर
अब तक टपक रहा है लहू दिल के जाम से

सुब्ह-ए-बहार हम को बुलाती रही मगर
हम खेलते रहे किसी ज़ुल्फ़ों की शाम से

हर साँस पर है मौत का पहरा लगा हुआ
आहिस्ता ऐ हयात गुज़र इस मक़ाम से

काटी तमाम उम्र फ़रेब-ए-बहार में
काँटे समेटते रहे फूलों के नाम से

ये और बात है कि 'अली' हम न सुन सके
आवाज़ उस ने दी है हमें हर मक़ाम से