कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
जिस मुसलमाँ ने उसे देखा वो काफ़र हो गया
दिलबरों के नक़्श-ए-पा में है सदफ़ का सा असर
जो मिरा आँसू गिरा उस में सो गौहर हो गया
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअ'त्तर हो गया
आँख से निकले प आँसू का ख़ुदा हाफ़िज़ 'यक़ीं'
घर से जो बाहर गया लड़का सो अबतर हो गया

ग़ज़ल
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन