काली काली घटा बरसती है
आज क्या लुत्फ़-ए-मय-परस्ती है
ख़ुश लगे दिल को क्यूँ न वीराना
आशिक़ों की यही तो बस्ती है
आज महफ़िल में ये ख़याल रहे
किस की जानिब से पेश-दस्ती है
जब कि इस का भी है मआ'ल यही
मय-परस्ती भी फ़ाक़ा-मस्ती है
एक तीर-ए-नज़र इधर मारो
दिल तरसता है जाँ तरसती है
बोसा मिलता है जान के बदले
'मशरिक़ी' ख़ूब जिंस सस्ती है

ग़ज़ल
काली काली घटा बरसती है
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी