EN اردو
काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा | शाही शायरी
kaghaz kaghaz dhul uDegi fan banjar ho jaega

ग़ज़ल

काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा

क़ैसर-उल जाफ़री

;

काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
जिस दिन सूखे दिल के आँसू सब पत्थर हो जाएगा

टूटेंगी जब नींद से पलकें सो जाऊँगा चुपके से
जिस जंगल में रात पड़ेगी मेरा घर हो जाएगा

ख़्वाबों के ये पंछी कब तक शोर करेंगे पलकों पर
शाम ढलेगी और सन्नाटा शाख़ों पर हो जाएगा

रात क़लम ले कर आएगी इतनी सियाही छिड़केगी
दिन का सारा मंज़र-नामा बे-मंज़र हो जाएगा

नाख़ुन से भी ईंट कुरेदें मिल-जुल कर हम-साए तो
आँगन की दीवार न टूटे लेकिन दर हो जाएगा

'क़ैसर' रो लो ग़ज़लें कह लो बाक़ी है कुछ दर्द अभी
अगली रुतों में यूँ लगता है सब पत्थर हो जाएगा