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काएनात-ए-ग़म में ज़ेहन इक ख़ला है | शाही शायरी
kaenat-e-gham mein zehn ek KHala hai

ग़ज़ल

काएनात-ए-ग़म में ज़ेहन इक ख़ला है

ख़लील मामून

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काएनात-ए-ग़म में ज़ेहन इक ख़ला है
ख़्वाब का परिंदा जिस में अड़ रहा है

रात कट गई है सुब्ह हो गई है
दिल को ढूँडिए मत कब का जल बुझा है

दर्द के सहारे कब तलक चलेंगे
साँस रुक रही है फ़ासला बड़ा है

इस जगह पे सब ने हाथ छोड़ डाला
ये मक़ाम शायद मंज़िल-ए-वफ़ा है

टूटते बदन में दिल अजीब शय है
रेतीली ज़मीं में फूल खिल रहा है

क्यूँ हवा नय बदलीं मेरे मुँह की बातें
मैं नय कुछ कहा है उस नय कुछ सुना है

तेरी क्या ये हालत हो गई है 'मामून'
ख़ुद ही कह रहा है ख़ुद ही सुन रहा है