जुनूँ ज़ियादा बहुत होता अक़्ल कम होती
मैं क़हक़हा भी लगाता तो आँख नम होती
हज़ारों चाँद सितारे चमक गए होते
कभी नज़र जो तिरी माइल-ए-करम होती
नहीं है मस्लहत-ए-ग़म को आरज़ू तिरी
तिरा जो ग़म भी न होता तो आँख नम होती
हर एक ज़हर को तुम ने बना दिया तिरयाक
जो तुम न होते हर इक साँस मेरी सम होती
ठहर न जाता अगर मैं फ़राज़ पर 'मामून'
तलाश-ए-ग़म भी मिरी हासिल-ए-अदम होती
ग़ज़ल
जुनूँ ज़ियादा बहुत होता अक़्ल कम होती
ख़लील मामून