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जुनूँ ज़ियादा बहुत होता अक़्ल कम होती | शाही शायरी
junun ziyaada bahut hota aql kam hoti

ग़ज़ल

जुनूँ ज़ियादा बहुत होता अक़्ल कम होती

ख़लील मामून

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जुनूँ ज़ियादा बहुत होता अक़्ल कम होती
मैं क़हक़हा भी लगाता तो आँख नम होती

हज़ारों चाँद सितारे चमक गए होते
कभी नज़र जो तिरी माइल-ए-करम होती

नहीं है मस्लहत-ए-ग़म को आरज़ू तिरी
तिरा जो ग़म भी न होता तो आँख नम होती

हर एक ज़हर को तुम ने बना दिया तिरयाक
जो तुम न होते हर इक साँस मेरी सम होती

ठहर न जाता अगर मैं फ़राज़ पर 'मामून'
तलाश-ए-ग़म भी मिरी हासिल-ए-अदम होती