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जुनूँ कम जुस्तुजू कम तिश्नगी कम | शाही शायरी
junun kam justuju kam tishnagi kam

ग़ज़ल

जुनूँ कम जुस्तुजू कम तिश्नगी कम

जिगर मुरादाबादी

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जुनूँ कम जुस्तुजू कम तिश्नगी कम
नज़र आए न क्यूँ दरिया भी शबनम

ब-हम्द-ओ-लिल्लाह तू है जिस का हमदम
कहाँ उस क़ल्ब में गुंजाइश-ए-ग़म

तवज्जोह बे-निहायत और नज़र कम
ख़ुशा ये इल्तिफ़ात-ए-हुस्न-ए-बरहम

मिरी आँखों ने देखा है वो आलम
कि हर आलम है लग़्ज़िश-हा-ए-पैहम

ख़ता क्यूँकर न होती आफ़ियत-सोज़
कि जन्नत ही न थी मेराज-ए-आदम

ख़ुशा ये निस्बत-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत
जहाँ बैठे नज़र आए हमीं हम

वो इक हुस्न-ए-सरापा अल्लाह अल्लाह
कि जिस की हर अदा आलम ही आलम

कहाँ पहलू-ए-ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब
कहाँ इक नाज़नीं दोशीज़ा शबनम

मसर्रत ज़िंदगी का दूसरा नाम
मसर्रत की तमन्ना मुस्तक़िल ग़म