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जुनून-ए-शौक़ की राहों में जब अपने क़दम निकले | शाही शायरी
junun-e-shauq ki rahon mein jab apne qadam nikle

ग़ज़ल

जुनून-ए-शौक़ की राहों में जब अपने क़दम निकले

शाहिद भोपाली

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जुनून-ए-शौक़ की राहों में जब अपने क़दम निकले
निगार-ए-हुस्न की ज़ुल्फ़ों के सारे पेच-ओ-ख़म निकले

ये बे-नूरी मिरे घर के उजालों की मआ'ज़-अल्लाह
अगर देखें अँधेरे तो अँधेरों का भी दम निकले

उभारे जाइए जब तक न उभरे नक़्श काग़ज़ पर
तराशे जाइए जब तक न पत्थर से सनम निकले

नहीं देखा था जब तक ख़ुद को समझे थे न जाने क्या
शुऊर-ए-इश्क़ ले कर आइना-ख़ाने से हम निकले

ये हसरत है सजा लूँ अपने होंटों पर हँसी में भी
घड़ी भर को मिरे दिल से अगर एहसास-ए-ग़म निकले

फ़राज़-ए-अर्श तक कैसे पहुँचते वो भला 'शाहिद'
फ़ज़ा-ए-तूर की हद से न आगे जो क़दम निकले