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जुनून-ए-दिल का अभी तर्जुमान बाक़ी है | शाही शायरी
junun-e-dil ka abhi tarjuman baqi hai

ग़ज़ल

जुनून-ए-दिल का अभी तर्जुमान बाक़ी है

निगार अज़ीम

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जुनून-ए-दिल का अभी तर्जुमान बाक़ी है
लबों पे मोहर लगी है ज़बान बाक़ी है

गई रुतों का अभी तक निशान बाक़ी है
गली में एक शिकस्ता मकान बाक़ी है

न पोछिए अभी उनवाँ मिरे फ़साने का
ये इब्तिदा है अभी दास्तान बाक़ी है

डुबो दिया था कभी जिस को तुंद तूफ़ाँ ने
उसी सफ़ीने का इक बादबान बाक़ी है

हज़ार बार ज़माने ने करवटें बदलीं
हमारे सर पे वही आसमान बाक़ी है

इक आशियाने पे बिजली गिरी तो रोना क्या
हमारे वास्ते सारा जहान बाक़ी है

'निगार' ख़ाना-ए-दिल में बसी है वीरानी
मकीं चला गया लेकिन मकान बाक़ी है