जुदा क्या हो गए तुम से न फिर यकजा हुए ख़ुद से
मिला वो इख़्तियार आख़िर कि हम तन्हा हुए ख़ुद से
तह-ए-आब-ए-दिल-ओ-जाँ मोतियों की तरह रहते हैं
जो मंज़र इस जहान-ए-ख़ाक में पैदा हुए ख़ुद से
छुपा लेते तिरी सूरत हम अपनी आँख में दिल में
लब-ए-गोया के हाथों किस लिए रुस्वा हुए ख़ुद से
उड़ी वो ख़ाक-ए-दिल सूरत नज़र आती नहीं अपनी
परेशाँ हो गए इतने कि बरगश्ता हुए ख़ुद से
वो झेलें सख़्तियाँ जाँ पर कि दिल पत्थर हुआ अपना
बचाया इस क़दर ख़ुद को कि बे-परवा हुए ख़ुद से
मिला वो नूर आँखों को कि बे साया हुए हम भी
हिजाब-ए-ला-मकाँ पाया जो बे-परवा हुए ख़ुद से
पड़े थे बे-ख़बर कब से ख़मोशी के समुंदर में
हवा ऐसी चली हम ज़मज़मा-पैरा हुए ख़ुद से
अब इस ज़ौक़-ए-हुज़ूरी के मज़े किस से बयाँ कीजिए
हम अपनी ख़ल्वतों में किस तरह गोया हुए ख़ुद से
'नदीम' अपने सफ़ीने को बहा कर ले गए हर-सू
जो तूफ़ाँ क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में मिरे बरपा हुए ख़ुद से

ग़ज़ल
जुदा क्या हो गए तुम से न फिर यकजा हुए ख़ुद से
सलाहुद्दीन नदीम