जो ये कहते थे कि मर जाना है
उन से जीने का हुनर जाना है
किस ने सोचा था कि ख़ुद से मिल कर
अपनी आवाज़ से डर जाना है
हादसा मौत नहीं इंसाँ की
हादिसा ख़्वाब का मर जाना है
हज़रत-ए-दिल को मनाना होगा
आज फिर उस की डगर जाना है
कुछ हवा, आग, ज़मीं, आब, फ़लक
फिर मुझे लौट के घर जाना है
एक बालिश्त नहीं जिस की छाँव
तुम ने उस को भी शजर जाना है
साथ रख मुझ को बढ़ा ले क़ीमत
गो मुझे तू ने सिफ़र जाना है
आज फिर तुम को नहीं ढूँढ सका
दिल को सहरा में पसर जाना है
आप भी सुनिए कहा है दिल ने
''आज हर हद से गुज़र जाना है''
सिलसिला तोड़ रहे हो क्यूँकर
सिलसिला ख़ुद ही बिखर जाना है
याद की घास तो गीली है बहुत
अब धुआँ दिल पे पसर जाना है
दिल को सैराब किया अश्कों से
हम ने रोने का हुनर जाना है
अपना जो भी था वो सब छूट गया
ये मगर वक़्त-ए-सफ़र जाना है
ग़ज़ल
जो ये कहते थे कि मर जाना है
नवनीत शर्मा