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जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे | शाही शायरी
jo tum aur subh aur gulnar-e-KHandan ho ke mil baiThe

ग़ज़ल

जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

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जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे
तो हम भी उन में बा-चाक-ए-गरेबाँ हो के मिल बैठे

नहीं खुलते जो लूँ उस शहद-लब से बोसा-ए-सानी
ये लब यूँ बोसा-ए-अव्वल में चस्पाँ हो के मिल बैठे

उड़ा दूँ धज्जियाँ दिल की अगर इन में से कोई भी
क़बा-ए-सुर्ख़ में तेरी गरेबाँ हो के मिल बैठे

ये जुज़्व-ए-हम-दिगर हैं ऐ कमाँ-अबरू ओजब मत कर
जो दिल तेरे सर-ए-नावक पे पैकाँ हो के मिल बैठे

अभी दिल जम्अ है ऐ शाना कर जल्दी सुराग़ इस का
मबाद उस ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं में परेशाँ हो के मिल बैठे

सुना ऐ तिफ़्ल जब मुज़्दा तिरी मकतब-नशीनी का
ये अज्ज़ा-ए-दिल-ए-सीपारा क़ुरआँ हो के मिल बैठे

हमारा रश्क से दिल जल के ख़ाकिस्तर हो या क़िस्मत
और इन दामों में मिस्सी ज़ेब-ए-दंदाँ हो के मिल बैठे

ये वो मजमा नहीं नासेह जहाँ हो दख़्ल दाना को
मगर तुझ सा कोई मक्कार नादाँ हो के मिल बैठे

ये इंसाँ ज़ा परी-वश ऐसे दिलकश हैं कि बे-वहशत
परी आवे अगर इन में तो इंसाँ हो के मिल बैठे

ये अतफ़ाल-ए-हसीं आशिक़ का जी लेने में शैताँ हैं
जिए आशिक़ वही उन में जो शैताँ हो के मिल बैठे

'बक़ा' हम गब्र-ए-ना-मुस्लिम थे पर आ कर ब-नाचारी
वो मुस्लिम-ज़ादा तिफ़्लों में मुसलमाँ हो के मिल बैठे