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जो शख़्स मिरा दस्त-ए-हुनर काट रहा है | शाही शायरी
jo shaKHs mera dast-e-hunar kaT raha hai

ग़ज़ल

जो शख़्स मिरा दस्त-ए-हुनर काट रहा है

वसीम मलिक

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जो शख़्स मिरा दस्त-ए-हुनर काट रहा है
नादान है शादाब शजर काट रहा है

क्या याद नहीं ज़ुल्म का अंजाम ज़माने
क्या सोच के सच्चाई का सर काट रहा है

फ़ितरत को कई चेहरों की परतों में छुपा कर
जाने ये सज़ा कैसी बशर काट रहा है

तारीफ़ ग़म-ए-हिज्र की क्या मुझ से बयाँ हो
इक ज़हर है जो क़ल्ब ओ जिगर काट रहा है

दिल आज तिरे अहद-ए-मोहब्बत के भरोसे
तन्हाई का दुश्वार सफ़र काट रहा है

कल साथ था कोई तो दर ओ बाम थे रौशन
तन्हा हूँ 'वसीम' आज तो घर काट रहा है