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जो संग हो के मुलाएम है सादगी की तरह | शाही शायरी
jo sang ho ke mulaem hai sadgi ki tarah

ग़ज़ल

जो संग हो के मुलाएम है सादगी की तरह

अख़तर इमाम रिज़वी

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जो संग हो के मुलाएम है सादगी की तरह
पिघल रहा है मिरे दिल में चाँदनी की तरह

मुझे पुकारो तो दीवार हूँ सुनो तो सदा
मैं गूँजता हूँ फ़ज़ाओं में ख़ामुशी की तरह

मैं उस को नूर का पैकर कहूँ कि जान-ए-ख़याल
जो मेरे दिल पे उतरता है शाइरी की तरह

किसी की याद ने महका दिया है ज़ख़्म-ए-तलब
सबा के हाथ से मसली हुई कली की तरह

थका हुआ हूँ किसी साए की तलाश में हूँ
बिछड़ गया हूँ सितारों से रौशनी की तरह

मैं अपने कर्ब में ग़लताँ वो अपने कैफ़ में गुम
है इस की जीत भी मेरी शिकस्त ही की तरह

ख़िज़ाँ के ज़हर का तिरयाक अगर नहीं यारो
गुलों की बात है बे-वक़्त रागनी की तरह