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जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया | शाही शायरी
jo sail-e-dard uTha tha wo jaan chhoD gaya

ग़ज़ल

जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया

रियाज़ मजीद

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जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया
मगर वजूद पे अपना निशान छोड़ गया

हर एक चीज़ में ख़ुशबू है उस के होने की
अजब निशानियाँ वो मेहमान छोड़ गया

न साथ रहने का वादा अगर किया पूरा
ज़मीं का साथ अगर आसमान छोड़ गया

ज़रा सी देर को बैठा झुका गया शाख़ें
परिंदा पेड़ में अपनी थकान छोड़ गया

वो वाक़िआ मिरा किरदार उभरता था जिस में
कहानी-कार उसी का बयान छोड़ गया

सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
वो अपने और मिरे दरमियान छोड़ गया

बहुत अज़ीज़ थी नींद उस को सुब्ह-ए-काज़िब की
सो उस को सोते हुए कारवान छोड़ गया

रहा 'रियाज़' अंधेरों में नौहा करने को
वो आँखें नोचने वाला ज़बान छोड़ गया