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जो मेरा होश का आलम है बे-ख़ुदी तो नहीं | शाही शायरी
jo mera hosh ka aalam hai be-KHudi to nahin

ग़ज़ल

जो मेरा होश का आलम है बे-ख़ुदी तो नहीं

अर्श मलसियानी

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जो मेरा होश का आलम है बे-ख़ुदी तो नहीं
मैं जिस को अपना समझता हूँ अजनबी तो नहीं

ख़ुदा-गरी का ये माहिर कुछ और ही शय है
तुम आदमी जिसे कहते हो आदमी तो नहीं

ये और बात है महरूम-ए-इल्तिफ़ात हूँ मैं
तिरे करम के ख़ज़ाने में कुछ कमी तो नहीं

सुबूत मिलता है उस से किसी तअ'ल्लुक़ का
कमाल-ए-बरहमी-ए-दोस्त दुश्मनी तो नहीं

निगाह-ओ-दिल में भी लाज़िम है इक मुरव्वत-ओ-कैफ़
नुमूद-ए-आरिज़-ओ-गेसू ही दिलबरी तो नहीं

नुज़ूल-ए-बर्क़ है शायद ये आशियानों पर
तू रौशनी जिसे समझा है रौशनी तो नहीं

तुम्हारे चेहरे पे आसार हैं ख़ुशी के मगर
जो मेरे चेहरे से ज़ाहिर है वो ख़ुशी तो नहीं

पिए शराब इबादत-गुज़ार हुए ऐ शैख़
मगर हुज़ूर ये शायान-ए-बंदगी तो नहीं

न जाने क्यूँ मिरे दिल को यक़ीं नहीं आता
जो तू ने जल्वा दिखाया है आरज़ी तो नहीं

सुना है तौबा से होता है ताज़ा-तर ईमाँ
हज़ार शुक्र कि ये आरिज़ा अभी तो नहीं

तबाहियों के लिए मुस्तइद हैं अहल-ए-जहाँ
ये आगही कहीं तौहीन-ए-आगही तो नहीं

बस एक मर्ग-ए-मुसलसल बस एक रंज-ए-दवाम
कुछ और शय है ये ऐ 'अर्श' ज़िंदगी तो नहीं