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जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब | शाही शायरी
jo la-mazhab ho usko millat-o-mashrab se kya matlab

ग़ज़ल

जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब

साहिर देहल्वी

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जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
मिरा मशरब है रिंदी रिंद को मज़हब से क्या मतलब

किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है
हरीफ़-ए-नुक्ता-दान-ए-इश्क़ को मकतब से क्या मतलब

हसीनान-ए-दो-आलम में है जल्वा हुस्न-ए-यकता का
नज़र में हुस्न-ए-यकता जब हुआ उन सब से क्या मतलब

हमारा होश हर-दम आश्ना-ए-नहनो-अक़रब है
हुज़ूरी जिस को हासिल हो उसे यारब से क्या मतलब

तमन्नाएँ बर आईं अपनी तर्क-ए-मुद्दआ हो कर
हुआ दिल बे-तमन्ना अब रहा मतलब से क्या मतलब

हमारे अर्सा-ए-शतरंज में है शाह दीवाना
जिसे हासिल हो आज़ादी उसे अरदब से क्या मतलब

हमारा सज्दा है हर गाम पर पीर-ए-तरीक़त को
सुलूक-ए-इश्क़ में सर है क़दम मरकब से क्या मतलब

हमें तो यार से मतलब है 'साहिर' और यारी से
हमारा यार और अग़्यार के मतलब से क्या मतलब