जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मैं तमाम लोगों से मिल चुका तिरी क़ुर्बतों की तलाश में
तिरी आँख से मिरी आँख तक फ़क़त एक मंज़र-ए-ख़ाक है
वही शाम-ए-तीरा-सरिश्त सी मिली मुद्दतों की तलाश में
कोई ख़्वाब सर से परे रहा ये सफ़र सराब-ए-सफ़र रहा
मैं शनाख़्त अपनी गँवा चुका गई सूरतों की तलाश में
ये जो झाँकती है नफ़स नफ़स कोई मौज-ए-ख़ूँ सी उठी हुई
बने ज़िंदगी की न क़त्ल-गह कहीं वहशतों की तलाश में
मिरे ज़ख़्म अब तू सिएगा क्या मिरे आँसुओं को पिएगा क्या
तिरे ज़ाइक़े ही बदल गए नई लज़्ज़तों की तलाश में
ग़ज़ल
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मुसव्विर सब्ज़वारी