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जो इस ज़मीं से कभी फिर नुमू करूँगा मैं | शाही शायरी
jo is zamin se kabhi phir numu karunga main

ग़ज़ल

जो इस ज़मीं से कभी फिर नुमू करूँगा मैं

हनीफ़ नज्मी

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जो इस ज़मीं से कभी फिर नुमू करूँगा मैं
तो चेहरा चेहरा तिरी जुस्तुजू करूँगा मैं

हूँ दर्द-मंद तुम्हारा मगर ये मत सोचो
जो तुम कहोगे वही मू-ब-मू करूँगा मैं

मिरी वफ़ा में कुछ अपनी ग़रज़ भी शामिल है
सो अपने ज़ख़्म को पहले रफ़ू करूँगा मैं

जो मुझ को देखेगा फ़ौरन पुकार उट्ठेगा
कि इख़्तियार तुम्हें हू-ब-हू करूँगा मैं

अगर जहाँ में कोई आइना नहीं तेरा
तो फिर तुझी को तिरे रू-ब-रू करूँगा मैं

ये ज़िंदगी तो सरी-उज़्ज़वाल है 'नजमी'
दिल अपना इस के लिए क्यूँ लहू करूँगा मैं