जो होनी थी वो हम-नशीं हो चुकी
मिरे मुद्दआ पर नहीं हो चुकी
बुरा हो मिरी ना-तवानी तिरा
निगाह-ए-दम-ए-वापसीं हो चुकी
उमीद-ए-करम कुछ न साक़ी से रख
कि अब वो मय-ए-सात्गीं हो चुकी
सुनाऊँ अगर ता-क़यामत तो क्या
कहानी मिरी दिल-नशीं हो चुकी
करूँ किस तरह अब मैं अर्ज़-ए-नियाज़
कि बाक़ी है दर और जबीं हो चुकी
तराविश कहाँ ज़ख़्म-ए-दिल में वो अब
कहीं कुछ रही है कहीं हो चुकी
बस अब हाथ से रख दो 'शैदा' क़लम
तुम्हारी ग़ज़ल की ज़मीं हो चुकी
ग़ज़ल
जो होनी थी वो हम-नशीं हो चुकी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा