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जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है | शाही शायरी
jo dasht-e-tamanna mein har waqt bhaTakta hai

ग़ज़ल

जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है

वाहिद प्रेमी

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जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है
इंसान का दिल ऐसा मासूम परिंदा है

इक ख़ाक का तूदा है पर अज़्मत-ए-दुनिया है
नक़्क़ाश-ए-हक़ीक़त ने क्या नक़्श तराशा है

मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
मुहताज-ए-शनासाई जब अपना ही चेहरा है

हम अपनी हक़ीक़त क्या पहचान सकें यारो
पर्दा है निगाहों पे ज़ेहनों में धुँदलका है

सोज़-ए-ग़म-ए-हस्ती से 'वाहिद' तिरी नस नस में
ये गर्म लहू क्या है बहता हुआ लावा है