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जो डर अपनों से है ग़ैरों से वो डर हो नहीं सकता | शाही शायरी
jo Dar apnon se hai ghairon se wo Dar ho nahin sakta

ग़ज़ल

जो डर अपनों से है ग़ैरों से वो डर हो नहीं सकता

सय्यद अमीन अशरफ़

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जो डर अपनों से है ग़ैरों से वो डर हो नहीं सकता
ये वो ख़ंजर है जो सीने से बाहर हो नहीं सकता

जो सच पूछो तो ये तस्वीर भी है सानेहा जैसी
किसी भी सानेहे पर कोई शश्दर हो नहीं सकता

खटकती है किसी शय की कमी इस दार-ए-फ़ानी में
शिकस्ता बाम-ओ-दर जिस के न हों घर हो नहीं सकता

ये आख़िर क्यूँ कि हर दिन एक मौसम एक ही मंज़र
जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर हो उस से बेहतर हो नहीं सकता

न शामिल हो जो आशुफ़्ता-ख़याली ज़ेहन-ए-मोहकम में
वो कुछ भी हो चमन-ज़ार-ए-मुअत्तर हो नहीं सकता

कली का लब बदन कुंदन का क़ामत सर्व की लेकिन
वफ़ा ना-आश्ना मेरे बराबर हो नहीं सकता

फ़क़त सूरत में क्या रक्खा है ऐ हुस्न-ए-तमाशा हैं
कि कार-ए-आइना से मैं सिकंदर हो नहीं सकता

किसी को चाहने से बाज़ आना कैसे मुमकिन है
लिखा है जो किताबों में वो अक्सर हो नहीं सकता

तिरे इंकार को इस ज़ाविए से देखता हूँ मैं
तिरा मिलना भी मेआ'र-ए-मुक़द्दर हो नहीं सकता

ये माना ऐब भी हैं सैकड़ों किस में नहीं होते
'अमीन-अशरफ़' मगर तुझ सा क़लंदर हो नहीं सकता