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जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं | शाही शायरी
jo chaar aadamiyon mein gunah karte hain

ग़ज़ल

जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
ख़ुदा की दी हुई इज़्ज़त तबाह करते हैं

बुतों के होते जो मह पर निगाह करते हैं
क़सम ख़ुदा की बड़ा ही गुनाह करते हैं

बड़ा ही ज़ुल्म ख़ुदा की पनाह करते हैं
हम आह आह तो वो वाह वाह करते हैं

वो बोसा देते नहीं गोरे गोरे गालों का
तुम्हें गवाह हम ऐ महर-ओ-माह करते हैं

बुतो तुम्हीं पे फ़िदा हैं बुतो तुम्हीं पे निसार
यक़ीं न हो तो ख़ुदा को गवाह करते हैं

कभी वो देखते हैं अपने तेग़ ओ बाज़ू को
कभी वो ग़ैज़ से मुझ पर निगाह करते हैं

मजाल क्या है जो लूँ नाम अपने क़ातिल का
तुम्हीं पे लोग मगर इश्तिबाह करते हैं

ख़याल रखते हैं हर वक़्त दोस्ती का शरीफ़
इसी तरह से हमेशा निबाह करते हैं

गुनाह क्या है जो दिल से अज़ीज़ रखते हैं
बने हो यूसुफ़-ए-सानी तो चाह करते हैं

अगर हो सब्र-ओ-क़नाअत की दौलत ऐ 'परवीं'
गदा भी करते हैं वो ही जो शाह करते हैं