जो भी मिलता है उसी को पूजने लगता हूँ मैं
क्या करूँ मजबूरियों हैं गाँव से आया हूँ मैं
कल भी एहसासात के शो'लों पे था मेरा वजूद
आज भी हर लम्हा सोने की तरह लगता हूँ मैं
मुझ से ही क़ाएम है अब तक तेरा तहज़ीबी वक़ार
तोड़ मत मुझ को कि घर का सद्र दरवाज़ा हूँ मैं
मैं तिरे साहिल पे आया हूँ कि देखूँ तेरा ज़र्फ़
ऐ समुंदर तुझ से किस ने कह दिया प्यासा हूँ मैं
साँस तक लेना भी है दुश्वार जब इस शहर में
ज़िंदगी तुझ पर मिरा एहसान है ज़िंदा हूँ मैं
लाख बुनियादों में तू ने ढक के रक्खा है मुझे
ऐ हवेली के खंडर अब भी तरह हिस्सा हूँ मैं
मैं ब-ज़िद हूँ उस पे कि सब मुझ को समझें आईना
जबकि आईना बख़ूबी जानता है क्या हूँ मैं

ग़ज़ल
जो भी मिलता है उसी को पूजने लगता हूँ मैं
शाहिद जमाल