EN اردو
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है | शाही शायरी
jo be-ruKHi ka rang bahut tez mujh mein hai

ग़ज़ल

जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है

इरफ़ान सत्तार

;

जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
ये यादगार-ए-यार-ए-कम-आमेज़ मुझ में है

सैराब कुंज-ए-ज़ात को रखती है मुस्तक़िल
बहती हुई जो रंज की कारेज़ मुझ में है

कासा है एक फ़िक्र से मुझ में भरा हुआ
और इक पियाला दर्द से लब-रेज़ मुझ में है

ये कर्ब-ए-राएगानी-ए-इम्काँ भी है मगर
तेरा भी इक ख़याल-ए-दिल-आवेज़ मुझ में है

ताज़ा खिले हुए हैं ये गुलहा-ए-ज़ख़्म-ए-रंग
हर आन एक मौसम-ए-ख़ूँ-रेज़ मुझ में है

रखती है मेरी तब्-ए-रवाँ बाब-ए-हर्फ़ में
ये मुस्तक़िल जो दर्द की महमेज़ मुझ में है

अब तक हरा-भरा है किसी याद का शजर
'इरफ़ान'! एक ख़ित्ता-ए-ज़रख़ेज़ मुझ में है