जो बे-घर हैं उन्हें घर की दुआ देती हैं दीवारें
फिर अपने साए में उन को सुला देती हैं दीवारें
असीरी ही मुक़द्दर है तो कोई क्या करे आख़िर
मुक़य्यद कर के अपने में सज़ा देती हैं दीवारें
हमारी ज़ीस्त में ऐसे भी लम्हे आते हैं अक्सर
दरारों के तवस्सुत से हवा देती हैं दीवारें
मिरी चीख़ें फ़सीलों से कभी बाहर नहीं जातीं
शिकस्ता हो के गिरने पर सदा देती हैं दीवारें
मयस्सर घर नहीं जिन को जो राहों में भटकते हैं
'ज़फ़र' उन को मकानों का पता देती हैं दीवारें
ग़ज़ल
जो बे-घर हैं उन्हें घर की दुआ देती हैं दीवारें
ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र