जो आईने से तेरी जल्वा-सामानी नहीं जाती
किसी भी देखने वाले की हैरानी नहीं जाती
कभी इक बार हौले से पुकारा था मुझे तुम ने
किसी की मुझ से अब आवाज़ पहचानी नहीं जाती
भरी महफ़िल में मुझ से फेर ली थीं बे-सबब नज़रें
वो दिन और आज तक उन की पशेमानी नहीं जाती
पिसे जाते हैं दिल हर-गाम पे शोर-ए-क़यामत से
ख़िराम-ए-नाज़ तेरी फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती
गवारा ही न थी जिन को जुदाई मेरी दम-भर की
उन्हीं से आज मेरी शक्ल पहचानी नहीं जाती
वो मेरे हाथ का शोख़ी से जाना उन के दामन तक
वो उन का नाज़ से कहना कि नादानी नहीं जाती
गरेबाँ अहल-ए-वहशत के सिया करता था होश इक दिन
और अब मुझ से ही मेरी चाक-दामानी नहीं जाती
ग़ज़ल
जो आईने से तेरी जल्वा-सामानी नहीं जाती
अनीस अहमद अनीस