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जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था | शाही शायरी
jitna tha sargarm-e-kar utna hi dil nakaam tha

ग़ज़ल

जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था

आरज़ू लखनवी

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जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
होश जिस का नाम है वो भी जुनून-ए-ख़ाम था

होश का ज़ामिन था साक़ी कैफ़-परवर दिल का शौक़
जाम था पास और बे-अंदेशा-ए-अंजाम था

ख़त्म करती जल्द क्यूँकर ज़ीस्त की मंज़िल को साँस
फेर कोसों का था लेकिन फ़ासला इक गाम था

जोश-ए-शोरीदा-सरी था ता-बा-वहम-ए-इख़्तियार
थक के दम टूटा तो फिर आराम ही आराम था

अब कहाँ वो आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स की शाह-राह
इक कशाकश थी कि जिस का ज़िंदगानी नाम था

चौंक कर ख़ुद मंज़र-ए-हस्ती से आँखें फेर लीं
हिचकियाँ काहे को थीं पोशीदा इक पैग़ाम था

गुल हुआ आख़िर भड़क कर शोला-ए-जोश-ए-शबाब
थी कफ़-ए-मौज-ए-हवादिस और चराग़-ए-शाम था

बे-जले किस तरह बनता शम्अ' परवाने का दिल
वो उसे अंजाम क्या देते जो मेरा काम था

तुम ने ख़ुद नाकाम रख के उस की हिम्मत की थी पस्त
आरज़ू-ए-बे-गुनह पर मुफ़्त का इल्ज़ाम था