जितना चाहूँगी तुम वहाँ तक हो
अब बताओ कि तुम कहाँ तक हो
ना-रसाई ही जग-हँसाई है
हाँ रसाई की तुम कमाँ तक हो
बात अच्छी भी है मगर फिर भी
इस बुढ़ापे में तुम जवाँ तक हो
अपनी मौज-ए-हवस के अर्से में
टूटी कश्ती के बादबाँ तक हो
आज के दौर में मकाँ कैसा
आसमानों के आसमाँ तक हो
अपनी हस्ती में बद-गुमानी थी
साँस में साँस के गुमाँ तक हो
उम्र का हादिसा शजर क्या था
इक कली हो तो बाग़बाँ तक हो
बद-गुमानी का डोल-डाल के देख
अर्श पर तुम फ़क़त ज़ियाँ तक हो
मावरा है यहाँ न मा-सिवा को
तुम जो बाक़ी हो बस गुमाँ तक हो

ग़ज़ल
जितना चाहूँगी तुम वहाँ तक हो
सय्यदा कौसर मनव्वर शरक़पुरी