जिस्म की चौखट पे ख़म दिल की जबीं कर दी गई
आसमाँ की चीज़ क्यूँ सर्फ़-ए-ज़मीं कर दी गई
मेरे हाथों की लकीरों ही में ख़म रक्खा गया
मेरी उफ़्ताद-ए-तबीअत ही ग़मीं कर दी गई
कल मिरी बे-ख़्वाब आँखों के मुक़ाबिल रात-भर
नक़्श तारों में वो चश्म-ए-सुर्मगीं कर दी गई
ख़ून रलवाती रही गुज़रे ज़मानों की शबीह
थक गईं आँखें तो ग़र्क़-ए-सातगीं कर दी गई
खोट सोने के तसलसुल में कहीं आई ज़रूर
यूँ अबस तो सई-ए-दिल बातिल नहीं कर दी गई
तल्ख़ कर लेता हूँ हर लज़्ज़त की शीरीनी को मैं
क्यूँ निगह मेरी निगाह-ए-पेश-बीं कर दी गई
नक़्श आख़िर दिल से उस रू-ए-हसीं का मिट गया
ख़त्म आख़िर सोहबत-ए-नाम-ओ-नगीं कर दी गई
ग़ज़ल
जिस्म की चौखट पे ख़म दिल की जबीं कर दी गई
ख़ुर्शीद रिज़वी