EN اردو
जिस्म के ख़ोल में इक शहर-ए-अना रक्खा है | शाही शायरी
jism ke KHol mein ek shahr-e-ana rakkha hai

ग़ज़ल

जिस्म के ख़ोल में इक शहर-ए-अना रक्खा है

इब्न-ए-उम्मीद

;

जिस्म के ख़ोल में इक शहर-ए-अना रक्खा है
नाम जीवन का तभी हम ने सज़ा रक्खा है

हम मकीनों को नहीं कोई ख़ुशी से मतलब
फ़ैसला शहर के वाली ने सुना रक्खा है

ख़ुशियाँ जा बैठीं कहीं ऊँची सी इक टहनी पर
दिल के बहलाने को इक लफ़्ज़-ए-क़ज़ा रक्खा है

आँखों में ख़्वाब चुभन सोने नहीं देती है
एक मुद्दत से हमें तू ने जगा रक्खा है

जिन को इंसान भी कहना नहीं जचता 'फ़र्रुख़'
उन को माबूद ज़माने ने बना रक्खा है