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जिसे तू ने समझा है ज़िंदगी उसी इंक़लाब का नाम है | शाही शायरी
jise tu ne samjha hai zindagi usi inqalab ka nam hai

ग़ज़ल

जिसे तू ने समझा है ज़िंदगी उसी इंक़लाब का नाम है

सरीर काबिरी

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जिसे तू ने समझा है ज़िंदगी उसी इंक़लाब का नाम है
कभी दिन हुआ कभी शब हुई कभी सुब्ह है कभी शाम है

तह-ए-ख़ाक भी दिल-ए-मुब्तला को कभी क़रार न आएगा
हूँ अभी से हश्र का मुंतज़िर कि नवेद जल्वा-ए-आम है

कोई हौसला है न मुद्दआ' कोई आरज़ू है न इल्तिजा
मिरे दिल में इक तिरी याद है मिरे लब पे इक तिरा नाम है

वहाँ वा'दे होते हैं आए दिन सर-ए-शाम ख़्वाब में आएँगे
यहाँ इज़्तिराब-ए-तमाम से मिरी शब की नींद हराम है

तू शराब दे कि न दे मगर मिरे दिल को तोड़ न साक़िया
कि ग़रीब बादा-परस्त का यही शीशा है यही जाम है

मिरे ज़ौक़-ए-दीद का हो बुरा कहाँ जा के सेंके कोई नज़र
न तजल्ली-ए-सर-ए-रह-गुज़र न तजल्ली-ए-सर-ए-बाम है

मिरी क़ैद-ए-ज़ीस्त के साथ ही है अजल की क़ैद लगी हुई
हूँ सरीर में वो असीर-ए-ग़म जो क़फ़स में भी तह-ए-दाम है