जिस तरफ़ भी देखती हूँ एक ही तस्वीर है
ऐ ख़ुदा क्या वो मिरी क़िस्मत में भी तहरीर है
इस हथेली पे मोहब्बत की लकीरें हैं बहुत
हाँ मगर ज़ंजीर में उलझा ख़त-ए-तक़्दीर है
मेरे रस्ते में खड़ी है चीन की दीवार सी
इस तरफ़ हैं ख़्वाब मेरे उस तरफ़ ता'बीर है
जाने क्यूँ मेंहदी रचा रक्खी है मेरे वीर ने
जाने क्यूँ हम लड़कियों के पाँव में ज़ंजीर है
हम तो करते थे मोहब्बत भी इबादत की तरह
अब खुला 'रख़्शाँ' मोहब्बत क़ाबिल-ए-ताज़ीर है

ग़ज़ल
जिस तरफ़ भी देखती हूँ एक ही तस्वीर है
रख़शां हाशमी