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जिस शजर पर समर नहीं होता | शाही शायरी
jis shajar par samar nahin hota

ग़ज़ल

जिस शजर पर समर नहीं होता

करामत बुख़ारी

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जिस शजर पर समर नहीं होता
उस को पत्थर का डर नहीं होता

आँख में भी चमक नहीं होती
जब वो पेश-ए-नज़र नहीं होता

मय-कदे में ये एक ख़ूबी है
नासेहा तेरा डर नहीं होता

अब तो बाज़ार भी हैं बे-रौनक़
कोई यूसुफ़ इधर नहीं होता

जो सदफ़ साहिलों पे रह जाए
उस में कोई गुहर नहीं होता

आह तो अब भी दिल से उठती है
लेकिन उस में असर नहीं होता

ग़म के मारों का जो भी मस्कन हो
घर तो होता है पर नहीं होता

अहल-ए-दिल जो भी काम करते हैं
उस में शैताँ का शर नहीं होता