जिस को देखो वही आवारा-ओ-सौदाई है
ज़िंदगी है कि किसी दश्त की पहनाई है
शो'ला-ए-ग़म को रग-ए-जाँ में किया जज़्ब तो फिर
हर नज़र सूरत-ए-ख़ुर्शीद नज़र आई है
डूब कर दिल में उभरती है कोई मौज-ए-ख़याल
अब्र छाया है कभी बर्क़ सी लहराई है
गीत के रूप में पाबंद बहारों की फ़ज़ा
चमन-ए-दिल में मिरे और निखर आई है
लज़्ज़त-ए-इश्क़ से भरपूर ग़म-ए-दिल की सदा
पर्दा-ए-शब में कई चाँद उड़ा लाई है
शबनमी आँख से देखो तो चमन की जानिब
सीना-ए-गुल में शरारों ने नुमू पाई है
सोचता हूँ कि ज़माने से निकल कर आगे
फिर वही मैं हूँ वही गोशा-ए-तन्हाई है
अपने होने की हक़ीक़त का यक़ीं है लेकिन
आँख क्यूँ जल्वा-ए-हस्ती की तमन्नाई है
ये अजब सिलसिला-ए-क़ैद-ए-नज़र है कि 'नदीम'
हर नज़र अपनी ही दुनिया की तमाशाई है

ग़ज़ल
जिस को देखो वही आवारा-ओ-सौदाई है
सलाहुद्दीन नदीम