जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना
दिल को जाने थे हम अपना सो कहाँ है अपना
क़िस्सा-ए-मजनूँ-ओ-फ़र्हाद भी इक पर्दा है
जो फ़साना है यहाँ शरह-ओ-बयाँ है अपना
वस्फ़ कहने में तिरे हुस्न के शर्मिंदा हूँ
उस के क़ाबिल न ज़बाँ है न दहाँ है अपना
जिस को जाना हो भला उस को बुरा क्या कहिए
गो कि बद-वज़अ' है पर अब तो मियाँ है अपना
ग़ज़ल
जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम