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जिस दिन से हराम हो गई है | शाही शायरी
jis din se haram ho gai hai

ग़ज़ल

जिस दिन से हराम हो गई है

रियाज़ ख़ैराबादी

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जिस दिन से हराम हो गई है
मय ख़ुल्द-मक़ाम हो गई है

क़ाबू में है उन के वस्ल का दिन
जब आए हैं शाम हो गई है

उफ़्ताद-ए-चमन ये है कि बुलबुल
ख़ुद ही तह-ए-दाम हो गई है

तौबा से घटी ये क़द्र-ओ-क़ीमत
मय दाम के दाम हो गई है

आती है क़यामत उस गली में
पामाल ख़िराम हो गई है

तौबा से हमारी बोतल अच्छी
जब टूटी है जाम हो गई है

कुछ ज़हर न थी शराब-ए-अंगूर
क्या चीज़ हराम हो गई है

लब तक जो कभी न आए वो आह
ऊँची सो बाम हो गई है

मय-नोश ज़रूर हैं वो ना-अहल
जिन पर ये हराम हो गई है

बुझ बुझ के जली थी क़ब्र पर शम्अ'
जल जल के तमाम हो गई है

आ जाए उसे जो आए मुझ तक
मौत उन का पयाम हो गई है

हर बात में होंठ पर है दुश्नाम
अब हुस्न-ए-कलाम हो गई है

सर ख़म है हरम में सू-ए-तैबा
कुछ ख़ू-ए-सलाम हो गई है

दौलत दिल की बुतो है महफ़ूज़
अल्लाह के नाम हो गई है

फिर फिर के नज़र हुई है सदक़े
जम कर ख़त-ए-जाम हो गई है

है दूर अभी 'रियाज़' मंज़िल
दिन ख़त्म है शाम हो गई है