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जिस दर पे तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा | शाही शायरी
jis dar pe tera naqsh-e-kaf-e-pa na rahega

ग़ज़ल

जिस दर पे तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा

रहमत इलाही बर्क़ आज़मी

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जिस दर पे तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा
रिंदों के लिए क़ाबिल-ए-सजदा न रहेगा

जाता तो है उस जल्वा-गह-ए-नाज़ में ऐ दिल
क्या होगा अगर ज़ब्त का यारा न रहेगा

परवाने को फूँका है तो ऐ शम्अ समझ ले
तेरा भी कलेजा कभी ठंडा न रहेगा

दीवाने को ज़ंजीर से गहरा है तअ'ल्लुक़
क्यूँ उस को तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा न रहेगा

परवर्दा-ए-तूफ़ाँ है मिरे दिल का सफ़ीना
साहिल की तरह ये लब-ए-दरिया न रहेगा

झुँझला के कहा उस ने ये आईना पटक कर
मुँह इस में जो देखेगा वो यकता न रहेगा

मरने की अदाओं से नहीं 'बर्क़' जो वाक़िफ़
रहते हुए ज़िंदा भी वो ज़िंदा न रहेगा