जिस दर पे तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा 
रिंदों के लिए क़ाबिल-ए-सजदा न रहेगा 
जाता तो है उस जल्वा-गह-ए-नाज़ में ऐ दिल 
क्या होगा अगर ज़ब्त का यारा न रहेगा 
परवाने को फूँका है तो ऐ शम्अ समझ ले 
तेरा भी कलेजा कभी ठंडा न रहेगा 
दीवाने को ज़ंजीर से गहरा है तअ'ल्लुक़ 
क्यूँ उस को तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा न रहेगा 
परवर्दा-ए-तूफ़ाँ है मिरे दिल का सफ़ीना 
साहिल की तरह ये लब-ए-दरिया न रहेगा 
झुँझला के कहा उस ने ये आईना पटक कर 
मुँह इस में जो देखेगा वो यकता न रहेगा 
मरने की अदाओं से नहीं 'बर्क़' जो वाक़िफ़ 
रहते हुए ज़िंदा भी वो ज़िंदा न रहेगा
        ग़ज़ल
जिस दर पे तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी

