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जीते-जी दुख सुख के लम्हे आते जाते रहते हैं | शाही शायरी
jite-ji dukh sukh ke lamhe aate jate rahte hain

ग़ज़ल

जीते-जी दुख सुख के लम्हे आते जाते रहते हैं

अख़तर इमाम रिज़वी

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जीते-जी दुख सुख के लम्हे आते जाते रहते हैं
हम तो ज़रा सी बात पे पहरों अश्क बहाते रहते हैं

वो अपने माथे पर झूटे रोग सजा कर फिरते हैं
हम अपनी आँखों के जलते ज़ख़्म छुपाते रहते हैं

सोच से पैकर कैसे तर्शे सोच का अंत निराला है
ख़ाक पे बैठे आड़े-तिरछे नक़्श बनाते रहते हैं

साहिल साहिल दार सजे हैं मौज मौज ज़ंजीरें हैं
डूबने वाले दरिया दरिया जश्न मनाते रहते हैं

'अख़्तर' अब इंसाफ़ की आँखें ज़र की खनक से खुलती हैं
हम पागल हैं लोहे की ज़ंजीर हिलाते रहते हैं