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जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को | शाही शायरी
ji chaha jidhar chhoD diya tir ada ko

ग़ज़ल

जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को

रसा रामपुरी

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जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को
चुटकी में उड़ाए हुए फिरते हैं क़ज़ा को

सज्दों का भी मौक़ा न रहा अहल-ए-वफ़ा को
फिर फिर के मिटाते हैं वो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को

जब पाते हैं सर धुनते ही पाते हैं 'रसा' को
समझाए कहाँ तक कोई इस मर्द-ए-ख़ुदा को

यूँ हम ने छुपाई है तिरे वस्ल की हसरत
जिस तरह छुपाता है ख़ता-वार ख़ता को

अब छोड़ 'रसा' इश्क़-ए-बुताँ देख कहा मान
कम्बख़्त तुझे मुँह भी दिखाना है ख़ुदा को