जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है
मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है
जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील-ए-जफ़ा-ए-ज़माना भी है
ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है
ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है
न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िए 'मजाज़'
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है
ग़ज़ल
जिगर और दिल को बचाना भी है
असरार-उल-हक़ मजाज़