झटक के चल नहीं सकता हूँ तेरे ध्यान को मैं
उठाए फिरता हूँ सर पर इक आसमान को मैं
मैं तुझ से अपना तअल्लुक़ छुपा नहीं सकता
जबीं से कैसे मिटा दूँ तिरे निशान को मैं
ये लोग मुझ से उदासी की वज्ह पूछते हैं
बता चुका हूँ तिरा नाम इक जहान को मैं
जो अहद कर के हर इक अहद तोड़ डालता है
ज़बान दूँगा भला ऐसे बे-ज़बान को मैं
मैं फ़तह कर के कोई क़िल'अ क्या करूँगा 'सलीम'
लो आज तोड़ता हूँ तीर को कमान को मैं

ग़ज़ल
झटक के चल नहीं सकता हूँ तेरे ध्यान को मैं
मोहम्मद सलीम ताहिर